Monday, March 18, 2019

गोण्डा : डीजे मनोरंजन के चलते आधुनिकता के परिवेश में विलुप्त हो रही फ़ाग गायन की लोक परम्परा// राजन कुशवाहा,

गोण्डा।(राजन कुशवाहा) आधुनिक परिवेश के इस मशीनरी दौर में डीजे साउंड रेडियो संयंत्रो के चलते प्राचीन लोक संस्कृति भी बदल रहा है। तीज त्यौहार को मौसमी गीतों के राग, ढोल मजीरों के थाप व गांव गवईं में गायन कला विलुप्त होती दिख रही है। त्यौहारों के आते ही माह भर पूर्व रंगों का पर्व होली नजदीक आते ही गांव गली गलियारों में फगुआ गीतों की धूम रहती रही है।

वर्तमान में होली मनाने के तौर-तरीके भी बदलाव आया। फाग और ढोलक की थाप की जगह अब गली नुक्कड़ व चौराहों पर डीजे की गूंज सुनाई देने लगी है। होली के प्रमुख गीत, फाग गायन धीरे धीरे विलुप्त हो रहे हैं। शहरों नगरों के बजाय अब फाग गायन गांवों में भी मुश्किल से ही सुनाई देता है।

अवध क्षेत्र में होली मनाने, रंग लगाने, फगुआ गाने बजाने का एक अलग ही परम्परा रहा है। होली के अवसर पर हुरियारे फाग गाते हुए निकलते हैं। होली का हुड़दंग रंग बसन्त पंचमी से जमकर खेलने लगते। गांव और शहर में चारों ओर ढोलक की थाप और फाग की गूंज सुनाई देनी लगती थी। होली में रंग खेलना, झूमते गाते मस्ती करने, और फिर अबीर गुलाल लगाकर गले मिलना की परंपरा रही है। और इसके बाद होली मिलन समारोह आयोजन में हुरियारे और लोक गायकों के फाग गायन की समां देखते ही बनता। लेकिन बदलते दौर में फाग गायन परम्परा विलुप्त सा हो रहा है।

प्रचलन में कभी द्वार- द्वार पर होने फगुआ गीत, अब शहर और गांवों में बमुश्किल ही सुनाई देती है। फाग गायन से जुड़े लोगों का मानना है कि आज मनोरंजन के अधिक संसाधन विकसित होने एवं युवा पीढ़ी का फाग गायन के प्रति रुचि न लेने के चलते फाग की दुर्दशा हो रही है। अब होली पर युवा पीढ़ी फाग गायन के लिए आगे बढ़ने के बजाय फिल्मी गीतों की गूंज डीजे की धुनों पर मस्ती करते हैं।

इस बारे में गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि आज की युवा पीढ़ी टीवी, सिनेमा और मोबाइल में उलझी हुई है। उसे न तो त्योहार और न ही रस्मों में रिवाज में रुचि है। टीवी, डीजे का चलन बढऩे से अब फाग गायन विलुप्त हो रहा है। स्थिति यह है कि युवा पीढ़ी में इस कला को सीखने की ललक कम हो गयी है। जो फाग गायक भी गिने चुने ही यदा कदा दिखते हैं। पहले फाग गीतों पर आधारित किताबों की बाजार में भरमार रहती थी। अब वह भी बाजार से गायब हो गई हैं।

ग्रामीणों का कहना है कि पहले नृत्य, गायन, नाटक नौटंकी के अलावा मनोरंजन का कोई साधन नहीं था। मनोरंजन के साथ रस्म की अदायगी के लिए हर गली-मोहल्ला में मौसमी गीत फाग का गायन होता था। दौर बदलने के साथ ही मनोरंजन के साधन बढ़े हैं। मोबाइल, टीवी, सिनेमा के जरिये युवा पीढ़ी का मनोरंजन कर रही है। युवा पीढ़ियों में लोक कलाओं के प्रति दिलचस्पी नहीं है। इस लिये होली परम्परा में लोकगीत फ़ाग गायन विधा का भविष्य अंधकार में है।

गांवों में अन्य ऐसे समाजसेवी जो यदा-कदा कार्यक्रमों में शौकिया फाग गायन करते हैं। लेकिन फाग कलाकारों की रोजी-रोटी अब इससे नहीं चलती। इसलिए होली के अलावा कभी भी इस लोक कला को सुनने का मौका नहीं मिलता है। ऐसे में आने वाले समय में फाग गायन विलुप्तता की कगार पर है।

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