Saturday, March 16, 2019

गोण्डा : रंगहीन होता रंगोत्सव पर्व अवध की होली परम्परा, विलुप्त हो रहे फ़ाग के राग// राजन कुशवाहा,


बदलते जमाने के बदलते परिवेश व पश्चिमी सभ्यता के चलते लोक संस्कृति, प्रचलन, परम्पराओं में बदलाव का सिलसिला नहीं थम रहा है। एक जमाना रहा है जब बसंत पंचमी के दिन से ही अबीर चढ़ाना और तिलक लगाकर रंगोत्सव का शुभारंभ होकर पूरे महीने तक फाग, जोगीड़ा, रंगभरी एकादशी, होलिका दहन, धुलण्डी होली और अंत में ' बुढ़वा मंगल' मनाने के साथ इस त्योहार का समापन होता था। किन्तु अब यह विलुप्तता के कगार पर है। केवल औपचारिक परंपराओं का निर्वाह हो रहा है। फ़ाग के इस रंग तरंग उमंग के मौसम में सब कुछ विलुप्त होता दिख रहा है। अब जोगीरा उठाने व सर्र र्र र र ऽ ऽ ऽ के बोल पर फाग गाने वाले ढूढें नहीं मिलते हैं।

बसंत पंचमी के बाद रिश्तेदारियों से लौटते गुलाबी - पीले रंग में रंगे या हथेलियों के छाप लगाए रिश्तेदार नहीं दिखते हैं। अब जीजा - साली होली की चुहलबाजियाँ नहीं करते है। भले कुछ गंभीर कर डालें। होली का हुल्लड़ और हुड़दंग से संबंध - विच्छेद तो नहीं हो सका है। परंतु संबंधों में खटास बढ़ते गए। प्रत्येक वर्ष कुछ अधिक रसहीन - श्रीहीन सी विधवा की जवानी की तरह क्रमशः सिकुड़ती - सिमटती हुई होली आती तो है।

आज स्नान - कायर देवरों के तन पर सर्द मौसम की जमी हुई मैल को छुड़ानेवाला उबटन मलने के लिए भौजाइयाें के हाथ नहीं उठते न ही संबत में उबटन का रगड़न जलाने का शौक बचा है। ए बनवारी - खोलऽ केंवाड़ी के बोल पर किवाड़ खुलवाकर दादी, चाची या भौजाइयों से लकड़ी - उपले माँगने वाले भी नहीं दिखते, न ही दिखती है भंग का रंग चढ़ाने वाले हुड़दंगियों की टोली। अब कूड़े - कबाड़ की होलिका और शराबियों की अभद्र कारगुजारियाँ इस त्योहार पर भारी हैं। तब हुड़दंग में लंगोटधारी देवरों के अंग व लंगोट तक भौजाइयों के कब्जे में चला जाता था। और निर्वस्त्र - नागा बने देवर घर के अगवाड़े - पिछवाड़े चक्कर खाते दिखते थे।

अब तो होली बाद भी नालियाँ भरी हुई दिखतीं हैं। वरना होली में इनकी सफाई देवर, भौजाई और ननदें होली खेलकर कर देतीं थीं। आप इसकी गंदगी न देखें मित्रों, देखिए संबंधों की मिठास, बसंत का उमंग - उल्लास और नाता निभाने - सहने के अपरिमित प्रयास में निहित प्रेम आज भी यादगार है। बलिया का यह देहाती लड़का बड़े शहर में किसी लड़की को पहली बार आलिंगनबद्ध करके चुम्बन लिया था। वह दिन होली के दो दिन पहले का था। वर्षों बाद जब शोले फिल्म का गीत - होली के दिन दिल खिल जाते हैं, रंगों से रंग मिल जाते हैं। पूछ ले जमाने से, ऐसे ही बहाने से, लिए और दिए दिल जाते हैं। सुना तो लगा कि यह तो बहुत ही स्वाभाविक गीत है। मौलिक भी ठीक मेरे जैसा।

अब फिल्मों में भी - तन रंग लो जी आज मन रंग लो- कोहिनूर, होली आई रे कन्हाई रंग छलके-मदर इंडिया, जा रे हट नटखट, न छेड़ मेरा घूँघट, नवरंग या आज न छोड़ेगें बस हमजोली , खेलेगें हम होली, चाहे भींगे तोरी चुनरिया, चाहे भींगे रे चोली, खेलेगें हम होली- कटी पतंग, जैसे मीठे - रसीले गुदगुदानेवाले गीत सुनने को नहीं मिलते हैं। अयोध्या, काशी व मथुरा - वृन्दावन में कुछ परंपराएं बची हैं या भक्तप्रेमी उन्हें बचाने का प्रयास कर रहे हैं। वर्ना शेष भारत में होली परंपरा निर्वाह, दारु पार्टी तथा हास्य कवि सम्मेलनों तक ही सिमट कर रह गया है।

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